मंच के दोनों ओर से अभिनेता मंच पर आते हैं| आमने-सामने से गुज़र जाते हैं| दायीं ओर से निकलकर, अपने काल्पनिक मित्र को दूर से हाथ हिलाकर अभिवादन करता है| बाईं ओर से आनेवाला दाईं ओर पहुँचकर, अपना बैग उतारकर अपनी काल्पनिक डैस्क पर बैठता है| बायीं ओर पहुँच चुका अभिनेता अपना थैला रखकर, कागज़ की गेंद बनाकर काल्पनिक मित्र को फेंकता है, और उसे संकेत करता है कि मैंने नहीं फेंका| दाईं ओर वाला किताब निकालकर, मन लगाकर पढ़ रहा है| बाईं ओर वाला फिर कागज़ की गेंद फेंकने के फिराक में खुद फिसलकर गिर जाता है| इस पर पृष्ठभूमि से बच्चों के खिलखिलाने की आवाज़ गूँजती है| स्कूल की घण्टी बजती है| दाईं ओर वाला अपना बस्ता बाँधने लगता है| इधर, बाईं ओर वाले को किसी अध्यापक ने देख लिया था, इसलिए उसे वे आकर थप्पड़ मारते हैं| थप्पड़ खाकर उदास, झुके कंधों से कक्षा के बाहर चल देता है| उधर, दाईं ओर वाला, असावधानी के कारण डैस्क के पायदान से टकराकर गिरते-गिरते बचता है| फिर सीधे चलते-चलते काँच के दरवाज़े से अपना सिर “धड़” से टकरा लेता है| और जैसे-तैसे बाहर निकलता है| दोनों आमने-सामने आकर अपनी धुन में चलने क...
सपना जो सच हुआ! जब हम छोटे बच्चे थे तो दुनियादारी से अनजान थे। किन्तु बचपन बीता पिताजी के बुद्धिजीवी मित्रों की बहसों को सुनते हुए, महाभारत-रामायण सुनते हुए! आज़ादी की गाथा का विश्लेषण सुनते हुए; "राष्ट्रधर्म" पढ़ते हुए और देशभक्तों के त्याग और बलिदान की गाथा पढ़ते हुए! जब राष्ट्र की बात करने वाले चुनाव हारते थे तो आश्चर्य होता था। मन में प्रश्न उठता था क़ि क्यों हारते हैं वो लोग जो सच में देश का विकास करना चाहते हैं? बचपन से ही क्रिकेट का भी बड़ा शौक था और जब भारत का मैच किसी से होता तो बड़ा उत्साह रहता था। लेकिन जीता हुआ मैच भारत हार जाता तो बड़ा दुःख होता कि हम हमेशा हारते ही क्यों हैं? हम जीतने के अधिकारी हैं। फिर हम क्यों हारते हैं? याद आता है वो हलधर किसान का चुनाव चिह्न! याद आता है वो इंग्लैण्ड से सेमीफइनल! ज़िन्दगी की इसी धूप-छाया में जीवन के उमंग भरे वसंत कब बीत गए कुछ पता ही न चला। भारत की बेबसी का वर्तमान देखते रहे और स्वर्णिम अतीत की कहानियाँ अपने छात्रों ...
आगरा बाज़ार, एक ऐसा नाटक कि बस बार-बार देखो! उसकी बुनावट ऐसी है कि नाटक शुरू होने के बाद, कब वह ख़त्म हो जाता है, पता ही नहीं लगता| नज़ीर अक़बराबादी की एक-एक नज़्म, ग़ज़ल इंसानियत से ऐसी चस्पा हैं कि बस दर्शक, बरबस ही इंसान बन जाता है; भले ही ढाई घंटे के लिए ही क्यों न बना हो! इस नाटक के दो मुख्य पात्र हैं| और ताज़्ज़ुब की बात है कि वे दोनों ही नाटक में रहते हुए भी, पूरी तरह से अनुपस्थित रहते हैं| एक आम जनता की रूह और आवाज़- शायर नज़ीर अक़बराबादी और दूसरे इस नाटक के जुलाहे- पद्म विभूषण स्वर्गीय हबीब तनवीर| इस नाटक का एक दृश्य बड़ा ही लुभावना है जबकि किताब वाले के यहाँ एक नौजवान लड़का [पुरुषोत्तम भट्ट] नज़ीर की एक ग़ज़ल सुनाता है और वो अनजाने ही दाद देते रहते हैं| आख़िर में, मक़ता पर उन्हें शायर का पता पड़ता है कि ये तो वो ही शायर है जिसकी हम आलोचना करते रहते हैं| बाद में, वो पतंग वाले के यहाँ बुला लिया जाता है| और फिर मज़े से महफ़िल जमती है|...
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