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उड़ो हवा में, फ़लक से मुआमला रक्खो!!!

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उड़ो हवा में, फ़लक से मुआमला रक्खो| यारो कभी-कभी ज़मीन से भी राफ़्ता रक्खो| वक़्त सबका कहा मान लेगा ख़ुद| ये बहस दोस्तों कल के लिए उठा रक्खो| न जी सकूँगा अगर ख़ुद को मैंने जान लिया| मुझे फ़रेब से बस यूँ ही मुब्तला रक्खो| मकाँ में कुछ भी नहीं सोगबार चुप के सिवा| बुरा नहीं हैं जो दरवाज़े को खुला रक्खो| करोगे क़त्ल तो मैं जी उठूँगा तुम्हीं से| मेरे लिए क़त्ल से बड़ी कोई और सज़ा रक्खो| डसेगी चोट तो किससे लिपट के रोओगे| जले मकान में परछाईयाँ सजा के रक्खो| [मेरी पसंद कि ये ग़ज़ल है जो कि मुझे धवल त्रिवेदी जी से प्राप्त हुई थी|]