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सपना जो सच हुआ!          जब हम छोटे बच्चे थे तो दुनियादारी से अनजान थे। किन्तु बचपन बीता पिताजी के बुद्धिजीवी मित्रों की बहसों को सुनते हुए, महाभारत-रामायण सुनते हुए! आज़ादी की गाथा का विश्लेषण सुनते हुए; "राष्ट्रधर्म" पढ़ते हुए और देशभक्तों के त्याग और बलिदान की गाथा पढ़ते हुए! जब राष्ट्र की बात करने वाले चुनाव हारते थे तो आश्चर्य होता था। मन में प्रश्न उठता था क़ि क्यों हारते हैं वो लोग जो सच में देश का विकास करना चाहते हैं?            बचपन से ही क्रिकेट का भी बड़ा शौक था और जब भारत का मैच किसी से होता तो बड़ा उत्साह रहता था। लेकिन जीता हुआ मैच भारत हार जाता तो बड़ा दुःख होता कि हम हमेशा हारते ही क्यों हैं? हम जीतने के अधिकारी हैं। फिर हम क्यों हारते हैं?          याद आता है वो हलधर किसान का चुनाव चिह्न! याद आता है वो इंग्लैण्ड  से सेमीफइनल! ज़िन्दगी की इसी धूप-छाया में जीवन के उमंग भरे वसंत कब बीत गए कुछ पता ही न चला। भारत की बेबसी का वर्तमान देखते रहे और स्वर्णिम अतीत की कहानियाँ  अपने छात्रों को सुना-सुना कर मन में अपने कर्त्तव्य की अनुभूति भर करते रहे कि ये देश का भविष्