आगरा बाज़ार, एक ऐसा नाटक कि बस बार-बार देखो!

    आगरा बाज़ार, एक ऐसा नाटक कि बस बार-बार देखो! उसकी बुनावट ऐसी है कि नाटक शुरू होने के बाद, कब वह ख़त्म हो जाता है, पता ही नहीं लगता| नज़ीर अक़बराबादी की एक-एक नज़्म, ग़ज़ल  इंसानियत से ऐसी चस्पा हैं कि  बस दर्शक, बरबस ही इंसान बन जाता है; भले ही ढाई घंटे के लिए ही क्यों न बना हो!
    इस नाटक के दो मुख्य पात्र हैं| और ताज़्ज़ुब की बात है कि वे दोनों ही नाटक में रहते हुए भी, पूरी तरह से अनुपस्थित रहते हैं| एक आम जनता की रूह और आवाज़- शायर नज़ीर अक़बराबादी और दूसरे इस नाटक के जुलाहे- पद्म विभूषण स्वर्गीय हबीब तनवीर|
    इस नाटक का एक दृश्य बड़ा ही लुभावना है जबकि किताब वाले के यहाँ एक नौजवान लड़का [पुरुषोत्तम भट्ट] नज़ीर की एक ग़ज़ल सुनाता है और वो अनजाने ही दाद देते रहते हैं| आख़िर में, मक़ता पर उन्हें शायर का पता पड़ता है कि ये तो वो ही शायर है जिसकी हम आलोचना करते रहते हैं| बाद में, वो पतंग वाले के यहाँ बुला लिया जाता है| और फिर मज़े से महफ़िल जमती है| यहाँ, सब आमजन इस लड़के से नज़ीर की शायरी सुनते हैं|
पेश-ए-खिदमत है-
आख़िर तू मेरा नाम तो, लीजो न भले लेकिन|
कहना कोई मरता है, तेरा चाहने वाला|
जैसा कि वो हो मुझसे ख़फ़ा, रूठ चला था|
अल्लाह ने क्यूँ जब ही मुझे, मार डाला|
शायर वो ही बन ठन के चला, है कहीं घर  से|
है ये तो उसी चाँद-सी, सूरत का उजाला!
सेहरा में मेरे हाल पे, कोई भी न रोया|
ग़र फूटकर रोया तो, मेरे पाँव का छाला|
औरों को जो गिरते हुए, देखा तो लिया थाम|
हम गिर भी पड़े तो भी न, ज़ालिम ने सँभाला|
और तुझसे किसी रोज़ तो कहते थे नज़ीरा!
ग़र तूने पढ़ा इश्क़-ओ-मोहब्बत का रिसाला!

Comments

Anamikaghatak said…
सुन्दर प्रस्तुति
बहुत-बहुत आभार गनपत भाई.. काफी समय से इस नाटक को देखने की(कभी इसका हिस्सा बनने की भी) तमन्ना दिल में पाले था.. आज ग़ज़ल के रूप में इसका कुछ हिस्सा ही सुना दिया आपने.. मज़ा आ गया..
Deepak ji hausalaa-afzaayee ke liye dhanywaad! aane waale samay mein, is naatak ke kuchh aur hisson ko aapse baantoongaa.

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