आजकल परिवर्तन लहर है। आमचुनाव के कारण सब ओर ऊर्जा से भरपूर एवं उत्साह से लबरेज़ भारतीय मतदान करने को न केवल उत्सुक हैं बल्कि ओरों को मतदान के लिए प्रेरित कर रहे हैं। परिवर्तन सोच का है और परिवर्तन अपनी ताक़त के अहसास का है। पहली बार लगने लगा है कि भावनाओं का तिलस्म लिए जो बाज़ीगर आता था और वोट झटक कर ५ साल के लिए नदारद हो जाता था; वो अब कहीं नहीं है। कदाचित ये तिलस्म काम में नहीं आयेगा। आज समय है कि खुद जागरूक रहकर दूसरों को जागरूक करने का ताकि जो भी सरकार बने वो हमारे प्रति उत्तरदायी हो। वो अपनी पार्टी का एजेंडा लागू करे पर प्रजा का हिट पहले करे। लोक सेवक की तरह काम करे। आप सभी उत्तरदायी सरकार चुनेंगे ऐसी आशा है।
आगरा बाज़ार, एक ऐसा नाटक कि बस बार-बार देखो!
आगरा बाज़ार, एक ऐसा नाटक कि बस बार-बार देखो! उसकी बुनावट ऐसी है कि नाटक शुरू होने के बाद, कब वह ख़त्म हो जाता है, पता ही नहीं लगता| नज़ीर अक़बराबादी की एक-एक नज़्म, ग़ज़ल इंसानियत से ऐसी चस्पा हैं कि बस दर्शक, बरबस ही इंसान बन जाता है; भले ही ढाई घंटे के लिए ही क्यों न बना हो! इस नाटक के दो मुख्य पात्र हैं| और ताज़्ज़ुब की बात है कि वे दोनों ही नाटक में रहते हुए भी, पूरी तरह से अनुपस्थित रहते हैं| एक आम जनता की रूह और आवाज़- शायर नज़ीर अक़बराबादी और दूसरे इस नाटक के जुलाहे- पद्म विभूषण स्वर्गीय हबीब तनवीर| इस नाटक का एक दृश्य बड़ा ही लुभावना है जबकि किताब वाले के यहाँ एक नौजवान लड़का [पुरुषोत्तम भट्ट] नज़ीर की एक ग़ज़ल सुनाता है और वो अनजाने ही दाद देते रहते हैं| आख़िर में, मक़ता पर उन्हें शायर का पता पड़ता है कि ये तो वो ही शायर है जिसकी हम आलोचना करते रहते हैं| बाद में, वो पतंग वाले के यहाँ बुला लिया जाता है| और फिर मज़े से महफ़िल जमती है| यहाँ, सब आमजन इस लड़के से नज़ीर की शायरी सुनते हैं| पेश-ए-खिदमत है- आख़िर तू मेरा नाम तो, लीजो न भले लेकिन| कहना कोई मरता है, तेरा चाहने वाला| जै
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